धर्म और राजनीति: सभी धर्म का मर्म एक है, धरा पर रहने वाले सभी जीवो एवं मनुष्यों का कल्याण

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सभी धर्म का मर्म एक है, धरा पर रहने वाले सभी जीवो एवं मनुष्यों का कल्याण:

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सभी धर्म का मर्म एक है, धरा पर रहने वाले सभी जीवो एवं मनुष्यों का कल्याण, सभी धर्म का मर्म एक है, धरा पर रहने वाले सभी जीवो एवं मनुष्यों का कल्याण; पर वास्तव में ऐसा हो क्या? शायद नहीं। सही अर्थों में जिसे आज की भाषा में धर्म कहते हैं, वह वास्तव में संप्रदाय है। इस धरा पर जितने भी संप्रदाय हैं उन सभी के आचरण खान-पान रहन-सहन पूजा पद्धति प्रतीक चिन्ह, ध्वज सब अलग-अलग हैं अतः इसे अपनाने के कारण सभी अपनी अलग-अलग पहचान रखते हैं और कई बार इसमें आपस में टकराव दिखता है पर सभी संप्रदायों का यह प्रयास रहता है कि उनके अनुयायियों की संख्या में बढ़ोतरी हो क्योंकि मानवीय चेतना की भी एक सीमा है और वह उसमें उस पर कुछ भी देख सुन समझ नहीं सकती है इसलिए कह सकते हैं कि इन सभी संप्रदायों के जितने भी मूल प्रवर्तक रहे हैं उन सबने ईश्वर की व्याख्या अपने-अपने ढंग से की और उनके सानिध्य प्राप्त करने की उपायों को बताया जिसके जरिए उसे प्राप्त किया जा सकता है चाहे हिंदू धर्म हो चाहे बौद्ध, जैन, सिख, ईसाई, मुस्लिम या कोई और सब ने ईश्वर की व्याख्या अपने ढंग से की इसी कारण से एक सामान्य मनुष्य इसे समझ पाने में अपने को असमर्थ पाता है क्योंकि एक संप्रदाय जिस काम को करना पाप मानता है दूसरा उसे करने की इजाजत देता है। आज हम सभी मानव विज्ञान के कारण बहुत ही तार्किक होते जा रहे हैं। पहले प्राकृतिक रूप से जो रहस्य था उसकी परते खुलती जा रही है और सामान्य मनुष्य से लेकर बड़े-बड़े धर्म गुरु भी विज्ञान के द्वारा आविष्कृत खोजो, निर्माणों का बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहे हैं।

आज का मानव जब प्रभुत्व, शक्ति, सत्ता, संपत्ति के लिए वह सब कुछ करने को तैयार है जिससे समाज में शांति तो कतई स्थापित नहीं हो सकती है क्योंकि एक धार्मिक व्यक्ति के लिए इसे प्राप्त करने के बजाय त्याग को सही ठहरता है। धर्म हमें कुछ प्राप्त करने का नहीं बल्कि उसे दूर रहने की सलाह देता है।

राजनीति में धर्म का समावेश होना चाहिए या नहीं

अब हम अपने मूल विचार पर आते हैं। क्या राजनीति में धर्म का समावेश होना चाहिए या नहीं? क्योंकि अब से पहले बहुत से विचारकों का समूह है, एक इसे राजनीति में शामिल करने के पक्ष में है, जबकि दूसरा राजनीति में धर्म को जगह देने के पक्ष में नहीं है, दोनों के अपने-अपने तर्क हैं ऐसे में सामान्य जन को संकट में आ जाता है कि कौन सही है कौन गलत है ।

मानवता का धर्म

वास्तव में प्रत्येक मनुष्य का अपना सुनिश्चित कर्म और कर्तव्य का निष्ठा पूर्वक करना ही, धर्म अनुसार आचरण करना है यह तभी  संभव है जब मनुष्य का स्वार्थ संकीर्णता, अभियान और दूसरों पर शासन करने की इच्छा का परित्याग करे। धर्म सर्वत्र पवित्र माना गया है लेकिन धार्मिक पवित्रता सायेसवादी है जिसको एक धर्म पवित्र मानता है संभव ही उसे दूसरे धन की धर्म में गणना की दृष्टि से देखा जा सकता है वास्तव में मनुष्य ही यह निर्धारित करते हैं कि उनके लिए क्या पवित्र क्या नहीं प्राचीन काल से धर्म और राजनीति और राजनीति और धर्म में गहरा संबंध रहता है जब जब धर्म एवं राजनीति का नकारात्मक सांसद हुआ है तब तक राजनीति ने धर्म का  दुरुपयोग किया है।

वट्रेड रसेल एवं ई0एम0 फोस्टर जैसे शांति वादी विद्वानों ने धर्म की इस बात के लिए आलोचना की है कि धर्म के नाम पर शुद्ध राजनीति करने से विश्व में हमेशा खून खराबा हुआ है

धर्म एवं राजनीति के संबंध में कुछ प्रमुख विचारकों के विचार सामने रखकर इस कसौटी पर कसा जा सकता है

स्वामी विवेकानंद ने कहा कि आडंबर अच्छा आदित्य व हर धर्मिता पूर्ण धर्म मनुष्य को विभाजित करता है जबकि अनुभव से विकसित धर्म मनुष्य को परस्पर जोड़ने का कार्य करता है उनका यह भी कहना था कि जो दूसरों के लिए जीते हैं वह ही सच में जीते हैं शेष तो जीते हुए भी मरे जैसे हैं।
भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा दशक देने वाले विचारक लोहिया के अनुसार धर्म एवं राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं परंतु दोनों की जड़े एक ही धर्म दीर्घकालिक राजनीति है जबकि राजनीति के अल्पकालिक धर्म है धर्म का काम भलाई करना और उसकी स्तुति करना है जबकि राजनीति का कार्य बुराई से लड़ना और बुराई की निंदा करना है। समस्या तब उत्पन्न होती है जब राजनीति, बुराइयों से लड़ने के स्थान पर केवल निंदा करती है तो कलह  का कारण बन जाती है। इसलिए आवश्यक है धर्म के मूल मर्म को समझा जाए धर्म एवं राजनीति का विशेष पूर्ण मिलन मानव कल्याण के लिए सड़क होती है जबकि इन दोनों का अभिलेख पूर्ण मिलन दोनों को भ्रष्ट कर देती है जो कहीं से भी मानव एवं मानव समाज के लिए हितकारी नहीं है।
धर्म एवं राजनीति को अलग-अलग रखने का सबसे बड़ा उद्देश्य यही है कि दोनों अपने-अपने मर्यादित क्षेत्र में सक्रिय रहे किंतु दोनों अपने निहित स्वार्थ की पूर्ति के लिए दुरुपयोग ना करें। धर्म एवं राजनीति में मर्यादित संपर्क बना रहे तथा ताकि दोनों एक दूसरे का सकारात्मक सहयोग प्राप्त कर सकें। राजनीति का धर्म को और धर्म का राजनीति को नकारात्मक रूप से प्रभावित करना पूरी मानवता के लिए खतरा उत्पन्न कर सकता है अगर ऐसा होता है इससे धार्मिक प्रतिक्रियावाद, कट्टरतावाद और सांप्रदायिकता की प्रवृत्ति का उत्पन्न होना स्वाभाविक है जो स्वतंत्रता एवं सामानता जैसे महत्वपूर्ण मानवीय मूल्यों को प्रभावित करती है।
अतः कहा जा सकता है कि भारत जैसे बहुलवादी संस्कृति एवं धर्म वाले देश में राजनीति एवं धर्म का तालमेल तो बिल्कुल ठीक नहीं है क्योंकि भारत एक ऐसा देश है जहां बहुत से धर्म के मानने वावा लोग रहते हैं इसे लिए भारत के संविधान निर्माता ने भारतीय संविधान की प्रस्तावना एवं मौलिक अधिकारों में राजनीतिक एवं धर्म को अलग रखने के लिए धर्मनिरपेक्षता को अपनाया और यह उम्मीद जताई कि आने वाली राष्ट्रीय और प्रांतीय सरकारी अपने स्तर पर नीतियां बना बनाते समय इस बात का ख्याल रखेंगे कि उनके चरित्र एवं नीतियों में धर्म आने ना आने पाए।
अंत में मेरा अपना यही मत है कि देश एवं प्रदेश की सभी सरकारों को अपना कार्य करते समय हमेशा यह ध्यान रखना होगा कि वह नीति निर्माण करते समय देश के समस्त नागरिकों को ध्यान में रखकर ही फैसला ले जिसका प्रतिफल यह होगा कि इससे देश की बहुत संस्कृति एवं धर्म के को फलने फूलने का मौका मिलेगा एवं देश में रहने वाले समस्त नागरिकों का सरकार एवं देश के दोनों देश दोनों के एक सकारात्मक सहयोग प्राप्त होता रहेगा साथ में भारत अंतरराष्ट्रीय पंचों पर भी अपनी अलग छाप छोड़ने में सफल होगा।
राजेश कुमार लेखक
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Chief Editor - अख्तर हुसैन https://newsdilsebharat.com

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